सुक्ष्म शरीर का प्राण शक्ति से संबंध अत्यधिक गहरा है. पञ्च तत्वों से बनी ये काया और विस्मय में डाल देने वाले इस अन्तः शरीर के रहस्य, सच सोचने पर विवश कर देते है की कैसे बाह्य और आतंरिक ब्रह्माण्ड का संजोग इस नश्वर काया का कायापलट कर हमें अपनी आतंरिक सीम शक्तियो से परिचित करवा सकता है. सुक्ष्म शरीर का अनुभव अपने आप में अलग ही है..ये तो वही जाने जिसने इसको अनुभव किया हो.
कई बार ऐसा भी देखने में आया है की व्यक्ति कई समय से सूक्ष्म शरीर द्वारा विचरण कर लोक लोकान्तरो में आ जाते है परन्तु वे स्वयं नहीं जानते होते है की इस् प्रक्रिया कों सूक्ष्म शरीर विचरण क्रिया कहते है. और ऐसा उनसे हो रहा हो रहा होता है..सामान्यतः इसे स्वप्न का नाम देकर भूल जाया करते है..
वास्तव में देखा जाए तो जब हम अंतर में झाँकने की क्रिया आरम्भ करते है तो प्रतिक्रियाये हमें कुछ इस रूप में ही मिलती है..अंतर झाँकने की क्रिया अर्थात हम स्थूल चक्षुओ से प्राण शक्ति का क्षय बाह्य भौतिक क्रिया में कर डालते है..कहा कैसे इस् बारे में विगत लेखो में पढ़ चुके है. परन्तु जब हम इस बाह्य क्रिया कों नियंत्रित करने में सक्षम हो जाते है तो अनुभवो और गुह्य गोपनीय रहस्यों का पिटारा हमारे सामने निद्रावस्था में स्वप्नों के माध्यम से, ध्यानावस्था में, तन्द्राअवस्था में होने लगता है.
मूलतः ये नियंत्रण क्रिया ही तो सर्वाधिक दुष्कर कार्य है परन्तु अभ्यास और जिद्द से क्या कुछ संभव नहीं.. विषय अंतर करते हुए एक घटना के बारे में आज खुलासा करने का मन हो रहा है..आरंभिक समय में जब मै आत्मा आवाहन का अभ्यास किया था तो मैंने महसूस किया चंद दिनों बड़ी ही आसानी से हो गया और फिर बाद में उसे थोडा हलके में लिया.. नतीजा ये हुआ की दूसरे दिन कुछ सिर्फ शिथिलता ही हाथ आई... यही हाल तीसरे और चौथे दिन भी हुआ..मै सोच में पड गई की आखिर अब तक जो प्रक्रिया इतनी आसानी से मुझे हो रही थी जैसे इसकी मै लंबे समय से अभ्यस्त हू तो अचानक अब क्या हुआ?..
अनुभव या प्रतिक्रिया बंद ? क्यों ?
फिर धीरे एक दो दिनों में मंथन कर उस काल खंड में जाके मैंने आकलन किया की कहा चूक हुई उस के पश्चात ज्ञात हुआ की जब आप इतर योनियों से संपर्क स्थापित करते है तो आप कों बहुत सचेत, सरल और सतर्क बने रहना पड़ता है.. हम भले ही स्थूल रूप से उनसे संपर्क में आते है पर वे तो हमारे सूक्ष्म रूप से ही समपर्क करती है ना तो उनके लिए ये बहुत आसान है हमारे मनोमास्तिस्क कों और प्राणशक्ति के स्तर कों भांप लेना.. हर बार कर ले ये भी संभव नहीं परन्तु वे चाहे तो उस द्वार में भिड़ सकती है..उनसे कोई खेल नहीं चल सकता नहीं तो आपका खेल बनाने में भी देरी नहीं लगेगी..
एक मुख्य कारण तो ये था की उस समय साधनाओ में काफी विराम अंतराल हो गया था..परिणाम स्वरुप एसी प्रक्रियाओं में आप का कमजोर पक्ष अर्थात संचित प्राण शक्ति और एकाग्रचित्तता में कमी व्यक्त हो जाती है..
तंत्र में बीच का रास्ता नहीं है..
शक्ति या तो आप पर हावी हो जाए... या आप शक्ति पर हावी हो जाये..
केवल दो पक्ष ही हो सकते है...
और अगर आप ने शक्ति कों हावी होने दिया तो समझो आप गए...
या इसकी विपरीत स्थिति आपको विजैता बनाती है.
उस से भी ज्यादा मुश्किल स्थिति अगर कुछ है तो उस शक्ति कों शरीर में स्थान देना और उसे पचा लेना..उसे धारण कर लेना..
तो बात ये है की एकाग्रता, संवेदनशीलता और सजगता हमारे इस पथ सुगम करती है परन्तु हमारी मूल प्रानेश्चेतना और चेतना शक्ति का स्तर ही हमारी सफलता का मापदंड बनते जाते है. यहाँ प्रवृत्ति और आकर्षण का भी गहन समबन्ध है. कैसे भी आवाहन क्रिया हो हमारी वृत्ति अनुसार हमें दीर्घ फल प्राप्त होते है...
जितनी तीव्र पैशाचिक योनी (विषय - बेताल सिद्धि) कों सिद्ध आप करना चाहते हो उतना बड़ी आपकी पचाने की या धारण करने का सामर्थ्य भी होना चाहिए क्युकी ये कोई मजाक नहीं.. ऐसा ना होने पर परिणाम बड़े भयंकर हो सकते है. बिजली का उदाहरण देते हुए कहा था की मेक्सिमम हाय वोल्टेज कों होल्ड करने के लिए होल्डर भी उतना ही सोलिड होना चाहए अन्यथा विस्फोट हो सकता है....खेर...अब तो आप कों अंदाजा लग ही गया होगा..
एक साधक बहुत सजग होता है. उसकी इन्द्रिय अत्यंत सतर्क होनी चाहिए.. आतंरिक और बाह्य दोनो ही रूप से..
साधनाए सतत करते रहने कोई भौतिक रूप में तभी के तभी दिखने वाले चमत्कार नहीं हो जाते अपितु धीरे धीरे हौले से आप कों अपनी असीम क्षमताओं कों जानने का अवसर प्राप्त होते जाता है..क्युकी सब कुछ अंतर निहित ही तो है....
क्रमशः