विगत लेख में हमने जाना की प्राण शक्ति का क्षय बाह्य रूप से किस प्रकार होता है परन्तु जिस प्रकार प्राण उर्जा का क्षय बाह्य रूप से होता है ठीक वैसे ही आतंरिक रूप से भी होता है..
प्राण उर्जा का सबसे ज्यादा क्षय इन्द्रियों द्वारा भी बराबर रूप से होते रहता है. इसके लिए हमें नियंत्रण हमारी इन्द्रियों पर रखना होगा.. प्राण उर्जा का व्यर्थ ही नष्ट होना अर्थात दुरुपयोग होना है. जिन इन्द्रियों द्वारा प्राण उर्जा का क्षय होता है उन्ही के द्वारा हमें उसे अंतर में समाविष्ट करने की कला कों भी सीखना चाहिए.
योग के पांच अंग – आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और अंत में समाधी जिनमे से तंत्र में तीन अंगों का मुख्य रूप से स्वीकार हुआ है – प्रत्याहार, ध्यान और समाधी.
प्रत्याहार की सर्वप्रथम अनिवार्य बिंदु है की हम शक्ति कों व्यर्थ नष्ट ही ना होने दे.. जहा से भी शक्ति का संचय करते बन सकता है करे..
समस्त इन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक महत्वपूर्ण इन्द्रीय है ‘नेत्र’..जिस प्रकार नेत्र बाह्यजगत में खुलते है उसी प्रकार अंतरजगत में भी खुलते है.
जिस व्यक्ति के नेत्र ना हो हम उस से सहनुभूति और दया का भाव रखते है. परन्तु ऐसे व्यक्तियों की बुद्धि आती प्रखर होती है. और देखिये ना कितनी साधारण परन्तु गुढ़ बात है की उसे कोई ज्यादा संघर्ष करने की जरुरत ही नहीं अंतर जगत में प्रवेश पाने के लिए..
भले ही उसके बाह्य जगत कों देखने के पटल हमेशा के लिए बंद हो गया हो परन्तु अन्तिक जगत के लिए बड़ी आसानी से खुल सकता अगर वह चाहे तो..
जिस प्रकार उनकी बुद्धि प्रखर होती उसी प्रकार उनकी ग्राह्य शक्ति भी प्रबल होती है.. इसका कारण है की उनकी एकाग्रता कानो पर और महसूस करने पर ज्यादा केंद्रित हो जाती है..
हम भी इस् का अभ्यास कर सकते है कुछ समय के लिए अपने आप कों नेत्रहीन मान कर हम भी ऐसा अभ्यास कर अपने इतर इन्द्रीयो कों प्रखर कर सकते है.
युद्ध और शस्त्र विज्ञान में इसका बहुत महत्व है.. अभ्यास के दौरान एक एसी स्टेज आती है जब आपकी आँखों पर पट्टी बाँध कर शत्रु की क्रियाओं का भास लगाने हेतु आपके मन कों केंद्रित कर सशक्त बनाया जाता है.
क्युकी सबसे ज्यादा उर्जा का क्षय आँखों से ही होता है हम ना चाहते हुए भी इतनी सारी चीजे एसी करते है देखते है जिस से हमारे मनोमस्तिष्क पर द्रश्य अद्रश्य रूप से गहिरा प्रभाव पड़ता ही है.. बाकि सभी इन्द्रियों की अनुभूति कों कुछ काल में बिसर पद जाता है परन्तु आँखों देखि बाते भूले नहीं भूलती..जो कारण बनता है आकर्षण, संशय, द्वेष, घृणा जेसे दोषों का...
जब एसी स्थिति बनती है हमारी पूरी उर्जा इस् क्रिया कों पूर्ण करने में लग जाती है...जिस प्राण उर्जा कों संचित करने में कडा परिश्रम करते है और लंबे समय बाद अर्जित कर इस् प्रकार खर्च कर देते है तो मिनटों का समय तक नहीं लाता खर्च होने में.
साधना के माध्यम से हम प्राणशक्ति का संघटन और उचित विघटन कर सकते है.
क्रमशः