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Pranashakti Series – Part 7

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Pranashakti Series – Part 7

विगत लेख में प्राण चक्र पर बात करते हुए कई सारे प्रश्न सामने आये जैसे ध्यान क्रिया पर, मंत्र जाप या एकाग्रित चित्त अवस्था, तन्द्रा अवस्था या साधनात्मक अनुभूतियो कों कित पत बाटना चाहिए. आदि इन सबके मूल में प्राण शक्ति ही तो कार्यरत है है.
प्राण चक्र पर मन की एकाग्र करने के पश्चात शरीर की किसी वेदना तक का अनुभव नहीं होता

 

 

प्राण तत्व कों अब तक देखा नहीं गया.. उसे सुंघा भि नहीं गया...मगर उसका मूल्य और महत्व हमें ज्ञात है की बिना प्राण तत्व के हम जी नहीं सकते, जीवन स्पंदनयुक्त नहीं हो सकता..शमशानवत होता है जब तक हम इस् बात कों नहीं समझेंगे तब तक हम गतिशील है कभी धन के पीछे तो कभी प्रियसी तो कभी पत्नी के पीछे पागल है...कभी रूप और योवन के, तो कभी ऐश्वर्य के पीछे पागल है. अपनी नौकरी या व्यापार के पीछे
अपनी लाश कों कंधे पर ढों रहे है..चार लोग जो आपकी लाश लेके जा रहे है और अपमे कोई अंतर नहीं है..और ये ऐसा ही चलता रहेगा..चल रहे है शमशान की ओर...

अंतर आ सकता है.. आ सकता है अगर अप उस प्राण तत्व कों अपने आप में जाग्रत करे, उस चेतना कों जाग्रत करे, उस गुरु अपने ह्रदय में स्थापित करे, और उस गुरु कों स्थापित करने के कोई मंत्र नहीं कोई प्रार्थना नहीं, स्स्तुती अनहि ,सुगंध का कोई मेहेत्व नहीं होता उसे केवल सराहा जाता है महसूस किया जाता है..गुरु भि एक सुगंध की भाँती है... महक है जो हमारे सामने होती है और उसको केवल एहसास ही किया जा सकता है... उस सुगंध कों आत्मसात कर सकते क्युकी वह प्रानेश्चेतना है...उस गुरु की सुवास कों इन आँखों वियोगी होगा पहला कभी निकल आँखों से चुभी क्योकि पुष्पों के माध्यम से नहीं होती. ये तब तक ही सम्भव है भाई, आप खुशनसीब है की आपको ऐसा अनुभव हो रहा है.. मै एक ही बात कहूँगी की ये बहुत अच्छा चिन्ह है, और अब इस् बारे में ज्यादा नही सोचना चाहिए और नाही किसी से चर्चा करनी चाहिए..
प्रयत्न पूर्वक जिस साधना का प्रण लिया है उसे पूर्ण करना चाहिए..बाकी ऐसे समय आतंरिकगुरु हमें किसी ना किसी रूप से संकेत दे ही देते है की आगे क्या कैसे करना चाहिए..

१. अपने साधनात्मक अनुभव नहीं बताये जाते क्युकी जिन किसी की दिव्यविभुतियो की हम पर ध्यानस्थ रूप में कृपा होती है वे रोषित हो सकते है..उनकी अवज्ञा करना उचित नहीं होता..

२. उनके निर्देश के बिना इसका उल्लेख किसी से नहीं करना चाहिए..

३. क्युकी जब हमें ऐसे अनुभव होते है तो, एक तो ये केवल वरिष्ट गुरु भाई बहनों के समक्ष ही खोले जाते है वो भी अत्यंत जरुरी हो या समतुल्य गुरुभाई बहनों से..

४. दूसरा इसे अपने अनुजो से संभव हो तो ना कहे... क्युकी दिव्य अनुभूतिया केवल दिव्य व्यक्ति ही अनुभूत कर सकता है.. जिसने दिव्यता अनुभव की हो केवल वही...

पंचतत्व में जल प्राणशक्ति से इच्छा शक्ति, मनःशक्ति की वृद्धि होती है और साथ ही होता है स्मृति में विकास. चित्त भी तुरंत एकाग्रित होता है..
हम व्यायाम करते है. प्रत्येक व्यक्ति के उसके व्यक्तिगत कारण होते है व्यायाम करने के..किसी को योगा, तो किसी को पैदल चलने का, तो किसी कों जिम, तो किसी कों तैरने का व्यायाम पसंद आता है. वैसे जो मन कों सबसे अधिक भाय वही सर्वोत्तम.

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